धर्मों के संगम पर उठते विवादों की गाथा
भारतीय इतिहास के पन्नों में अनेकों धार्मिक स्थल हैं जिनकी वास्तुकला और इतिहास, दोनों ही विविध संस्कृतियों के मिलन की कहानी कहते हैं। इन्हीं में से एक है अजमेर में स्थित ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’, जिसका नाम उतना ही रहस्यमयी है जितनी कि इसकी कहानी। इस ऐतिहासिक स्मारक के इर्द-गिर्द कई सालों से चला आ रहा विवाद आज फिर से सुर्खियों में है।
इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का मार्मिक उदाहरण
‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ अजमेर की यह प्राचीन मस्जिद भारतीय उपमहाद्वीप की इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का एक श्रेष्ठ नमूना है। इसके वास्तुशिल्प में हिंदू, इस्लामी और जैन संस्कृति के अद्वितीय मेल को देखा जा सकता है। कहा जाता है कि यह स्थल मूल रूप से एक हिंदू और जैन इमारत थी, जिसे बाद में तोड़कर इसलामिक स्थापत्य कला में बदल दिया गया।
क्या था निर्माण का इतिहास?
1192 ईस्वी में, अफगानी शासक मोहम्मद गोरी के समय में इसे सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक की देखरेख में एक मस्जिद का रूप दिया गया। पुराणों में उल्लिखित है कि इस स्थान पर एक विशाल संस्कृत विद्यालय और मंदिर हुआ करता था, जिसे मस्जिद में परिवर्तित किया गया था। मस्जिद के मुख्य प्रवेश द्वार के समीप एक संगमरमर का शिलालेख है, जिस पर संस्कृत में उस विद्यालय की जानकारी अंकित है।
एक जैन मंदिर की आधारशिला
कुछ मान्यताओं के अनुसार यह स्थान मूल रूप से एक जैन मंदिर था, जिसे छठी सदी में सेठ वीरमदेव काला ने निर्मित करवाया था। अन्य शिलालेखों से पता चलता है कि चौहान वंश के समय यह एक संस्कृत कालेज था, जिसे मुहम्मद गोरी और ऐबक ने मस्जिद में परिवर्तित कर दिया।
नामकरण की पीछे की कहानी
एक लोककथा के अनुसार, मुहम्मद गोरी ने जब इस इमारत को देखा तो उन्होंने ऐबक को इसे मस्जिद में परिवर्तित करने के लिए मात्र 60 घंटे का समय दिया था। इतने कम समय में इमारत का पूर्ण निर्माण संभव नहीं था, इसलिए कुछ बदलाव करके इसे मस्जिद का स्वरूप दिया गया और यहां नमाज आयोजित की गई। इसी कारण इसका नाम ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ पड़ा।
इस प्रकार, ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ न केवल अपने नाम और सौंदर्य के लिए जाना जाता है, बल्कि यह धार्मिक विवादों का एक केंद्र भी बना हुआ है। इसका इतिहास और आज तक चली आ रही बहसें, धार्मिक संस्कृतियों के सम्मिश्रण और उनके विवादित सफर की गवाह हैं।