महाभारत के मर्मस्पर्शी उपदेश
महाराज भीष्म, जिन्होंने कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में अपनी दिव्य ज्ञान की धारा बहाई थी, वे सिर्फ श्रेष्ठ योद्धा ही नहीं, महत्वपूर्ण जीवन उपदेश देने वाले गुरु भी थे। उनके द्वारा अर्जुन को सिखाए गए पाठ, आज भी हमारी संस्कृति में गहराई से समाहित हैं। ऐसे ही कुछ उपदेश भोजन से संबंधित हैं, जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता और अन्य शास्त्रों में भी वर्णित किया गया है। आज हम चर्चा करेंगे कि कैसे चार प्रकार के भोजन से अकाल मृत्यु और दरिद्रता जीवन में प्रवेश करती है।
प्रथम प्रकार का भोजन
श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है कि अगर कोई खाने की थाली पर कूद पड़े, तो वह भोजन मलिन हो जाता है, मानो नाली का कीचड़। ऐसे अशुद्ध भोजन का सेवन करने से मनुष्य अपने जीवन में नकारात्मकता और संकटों को आमंत्रित करता है। अतः यदि आपसे ऐसा कोई भोजन परोसा जाए, तो उसे ग्रहण न करते हुए किसी पशु को खिला देना चाहिए।
दूसरे प्रकार का भोजन
भीष्म पितामह ने अर्जुन को आगाह किया कि जिस थाली में पैर पड़ जाए, उसमें परोसा भोजन अकर्मण्य है, उसे खाने से धन की हानि और दरिद्रता आती है। इस तरह का भोजन उपेक्षित और अधम माना जाता है, अतः भक्ति और संकल्प के साथ खाना हमेशा हितकारी होता है।
तृतीय प्रकार का भोजन
एक ऐसा भोजन जो बालों से दूषित हो गया हो, उसे सेवन करने की गलती नहीं करनी चाहिए। सावधानी और स्वच्छता के साथ भोजन तैयार करना और खाना आत्मिक और भौतिक शुद्धता का प्रतीक है। हमारे ऋषि-मुनियों ने भी शारीरिक और आत्मिक पवित्रता पर बल दिया है।
चतुर्थ प्रकार का भोजन
अंत में, भीष्म पितामह ने एक अन्य प्रकार के भोजन की चर्चा की, जहाँ एक ही थाली में पति-पत्नी दोनों खाते हैं। ऐसे भोजन से प्रेम और स्नेह तो बढ़ता है, किंतु यदि कोई तीसरा व्यक्ति जुड़ जाता है, तो उससे संबंधों में विकार और मनोमालिन्य आता है। परंपरागत शिक्षाएँ और संस्कृति हमें आचरण और मर्यादा का महत्व समझाते हैं।
महर्षि भीष्म के ये उपदेश हमें ये सिखाते हैं कि भोजन मात्र शारीरिक पोषण नहीं, बल्कि आत्मिक उन्नति का भी एक साधन है। भोजन का सदुपयोग और सम्यक संयम हमारे जीवन को और भी सुंदर और सार्थक बनाता है। इसीलिए हमें भोजन को संस्कार और सम्मान से ग्रहण करना चाहिए। ऐसा कर हम अपने जीवन में समृद्धि और आनंद का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
आधुनिक समय में भी इन उपदेशों की प्रासंगिकता बनी हुई है। संयमित और स्वास्थ्यवर्धक आहार अपनाकर हम न केवल अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं, बल्कि हमारे संबंधों और सामाजिक जीवन में भी सार्थकता आ सकती है।
हमारे संतों ने जो शाश्वत सत्य हमें दिए हैं, उन्हें अपने जीवन में समाहित कर एक सुखद, संपन्न और समृद्ध जीवन की ओर अग्रसर होना हमारे ही हाथों में है।
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