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दिल्ली: 80 वर्षीय महिला के उत्पीड़न पर हाई कोर्ट का सख्त रुख

सिनियर सिटिजन की सुरक्षा और सम्मान की मांग

दिल्ली, राष्ट्रीय राजधानी, को एक बार फिर से उस दर्दनाक स्थिति से रूबरू होना पड़ा है जहां बुजुर्गों की सुरक्षा और सम्मान के मुद्दे की अनदेखी हो रही है। दिल्ली हाई कोर्ट के हालिया निर्णय ने इस समस्या को सामने लाते हुए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। 80 वर्षीय एक महिला ने अदालत में अपने बेटा-बहू और पोते-पोतियों के खिलाफ उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के आरोप लगाए थे। न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि उनको उस घर से बेदखल किया जाएगा जिसमें वे एक साथ रहते थे।

’साहब बेटा-बहू परेशान करते हैं ….’

इस प्रकरण में सीनियर सिटिजन महिला ने अपने बेटे और बहू पर केवल अत्याचार के आरोप ही नहीं लगाए, बल्कि बताया कि उन्होंने ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम’ की भी उल्लंघना की है। महिला ने बताया कि वे संपत्ति की इकलौती और पंजीकृत स्वामी हैं, और बेटे-बहू ने उनकी या उनके पति की देखभाल नहीं की।

धीमी मौत: स्लो पॉइजन देने का आरोप

महिला ने अपने तर्क में यह भी कहा कि बेटे और बहू के बीच वैवाहिक मनमुटाव और झगड़े उन्हें ‘धीमी मौत’ जैसा महसूस कराते हैं। न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने 27 अगस्त को पारित निर्णय में कहा कि पुत्रवधू का निवास कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं है और इसे वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत दिए गए वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों के अनुसार देखा जाना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि कष्ट पहुंचाने वाले निवासियों को बेदखल करने की अनुमति दी जा सकती है।

न्यायालय का फैसला और सामाजिक संदेश

न्यायमूर्ति नरूला ने इस मामले को एक बार-बार होने वाले सामाजिक मुद्दे के रूप में प्रतिबिंबित किया है। उन्होंने कहा कि वैवाहिक कलह न केवल दंपति के जीवन को बाधित करता है, बल्कि इससे वरिष्ठ नागरिकों को भी गंभीर प्रभाव होता है। उन्होंने यह भी कहा कि बुजुर्ग याचिकाकर्ताओं को अपने जीवन के नाजुक चरण में पारिवारिक विवादों के कारण अनावश्यक संकट का सामना करना पड़ा। इस सबक से पारिवारिक विवादों के बीच वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण पर ध्यान देने की महत्ता को पारदर्शी रूप से दर्शाया गया है।

सरकार और समाज की जिम्मेदारी

सरकार और समाज दोनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण चेतावनी है। वरिष्ठ नागरिकों के लिए सुरक्षित, सम्मानजनक और उपेक्षा मुक्त माहौल की आवश्यकता पर जोर देते हुए, यह घटना सामाजिक ताने-बाने में बुजुर्गों की देखभाल की अनिवार्यता को दर्शाती है। कानूनन यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वरिष्ठ नागरिक अपने जीवन के अंतिम चरण में सम्मान और स्नेह के साथ रह सकें।

क्या कहता है कानून?

मौजूदा कानून, ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम’, 2007, ने यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई बच्चे अपने माता-पिता की देखभाल करने में असमर्थ है या उन्हें उत्पीड़न कर रहा है, तो माता-पिता का यह अधिकार है कि वे उनको घर से बेदखल कर सकते हैं। इस कानून का मूल उद्देश्य बुजुर्गों के अधिकारों की सुरक्षा करना और उनके लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करना है।

समाज की भूमिका

यह समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बुजुर्गों की देखभाल करे और उन्हें सम्मानजनक स्थान प्रदान करे। बुजुर्ग नागरिकों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को रोकने के लिए समग्र सामुदायिक प्रयासों की आवश्यकता है। समाज को जागरूक करने और बुजुर्गों के प्रति सम्मान बढ़ाने के लिए सामुदायिक पहल और सलाहकार सेवाओं की स्थापना महत्वपूर्ण हो सकती है।

आगे की राह

हमारे समाज के हर सदस्य को यह समझने की आवश्यकता है कि बुजुर्गों की देखभाल करना न केवल हमारी नैतिक जिम्मेदारी है, बल्कि कानूनी और सामाजिक बाध्यता भी है। यह घटना एक सबक है कि किसी भी कीमत पर बुजुर्ग नागरिकों के साथ अन्याय और अत्याचार को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। देश और समाज दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वे बुजुर्गों को आदर्श जीवन देने के लिए सतत प्रयास करें।

निष्कर्ष

दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण कदम है, जो भविष्य में अन्य वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक मिसाल बनेगा। यह फैसला बुजुर्गों की सुरक्षा, सम्मान और कल्याण के प्रति सरकार और समाज की जिम्मेदारी को भी जगजाहिर करता है। इसका पालन कर, हम सभी एक संतुलित और स्वस्थ समाज की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।

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