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काशी में नागा साधुओं की होली: श्मशान की राख का आह्वान

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दुनिया भर में होली का त्योहार अपने रंग-बिरंगे गुलाल और उल्लास के लिए प्रसिद्ध है। होली के रंग में डूबे इस समाज के बीच, एक अनूठी परंपरा निभाने वाले होते हैं काशी के नागा साधु।

भस्म से होली: नागा साधुओं का दृष्टिकोण

काशी की गलियों में जहां एक ओर हँसी-खुशी का स्वर होता है, वहीं दूसरी ओर मोक्ष की इस नगरी में नागा साधुओं की होली एक अद्भुत और निराले संसार का दर्शन करवाती है। होली के पावन अवसर पर ये साधुगण चिता की भस्म को अपने शरीर पर आलिंगन बाँधते हैं।

आध्यात्म की इस यात्रा में भूत-प्रेत और अदृश्य शक्तियों की सानिध्य मानी जाती है। यह रीति नागा साधुओं के संन्यासी जीवन की दिव्य छाप है। वे स्थूल शरीर से परे आत्मा की शुद्धि और परमात्मा के प्रति अपनी अटूट भक्ति का प्रदर्शन करते हैं।

मणिकर्णिका घाट पर भस्म होली का विस्तार

होली के आगमन से पूर्व, काशी के मणिकर्णिका घाट की पवित्र धरती पर नागा साधुओं का एकत्रित होना, उत्सव की परिणति में उनके विशेष स्थान को उजागर करता है। यहाँ जीवन और मृत्यु के अंतराल में स्वयं भगवान शिव की उपस्थिति अनुभव की जाती है। राख को उड़ाते और शरीर पर लेप के रूप में लगाते हुए साधुगण इस परम त्योहार को मनाते हैं।

इस क्रिया में शामिल अग्नि, धूप, यज्ञ की राख वस्तुतः त्याग, मुक्ति और ज्ञान का आधार बनती है। मणिकर्णिका घाट, जिसे सबसे पवित्र श्मशान घाट माना जाता है, वहाँ चिताओं की राख से सालों से भस्म होली खेलते आ रहे नागा साधु आध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं।

चिता की राख से होली क्यों?

हिंदू वेदपुराण और शास्त्रों की मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव इन्हीं घाटों पर अपने भूत-प्रेत और अदृश्य शक्तियों सहित होली खेलते हैं। वे अपनी गणों के संग यह रंगीन उत्सव मनाते हैं, जिससे साधु समुदाय भी प्रेरित होते हैं। यह परंपरा एक प्राचीन विधि है जो अब तक सनातन धर्म में संजो कर रखी गई है।

मसान होली: समाज से परे एक त्योहार

मसान होली का धार्मिक महत्व मात्र अनुष्ठान तक सीमित नहीं है; यह सन्यासी जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रकट करता है, जिसमें शरीर से ज्यादा आत्मा की पवित्रता पर बल दिया जाता है। साधुओं का यह अनोखा त्योहार मृत्युलोक और देवलोक को जोडने”.

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