नागा संतों की रहस्यमयी जीवनशैली
भारत की आध्यात्मिक धरातल पर नागा साधुओं का अस्तित्व हमेशा ही रहस्य एवं कौतूहल का विषय रहा है। ये अनन्य संन्यासी, जो अपना जीवन तपस्या और धार्मिक अनुष्ठानों में समर्पित कर देते हैं, प्रायः पहाड़ी कुंद्राओं और अखाड़ों में ही वास करते हैं। इनका आवागमन बहुत ही सीमित और समूहिक होता है; यह दृश्य अधिकतर माघी मेला, कुंभ एवं महाकुंभ के समय परिलक्षित होता है।
नागा साधुओं के शाही स्नान और परिवारण क्रियाओं हेतु विशेषतौर पर व्यवस्था की जाती है, जिसे प्रायोजित करने के लिए उन्हें पहचाना जाता है। इनकी दीक्षा सं्तों के 13 अखाड़ों में सात अखाड़ों में होती है, जिसमें जीवन की कठिन तपस्याओं और विभिन्न परीक्षाओं से गुजरना होता है। ये कठिनाइयां ही इन साधुओं को सामान्य संतों से भिन्न बनाती हैं और इनकी पवित्रता की दिग्दर्शिनी बनती हैं।
नागा बनने की कठिन प्रक्रिया
नागा साधुओं की संघर्षपूर्ण दीक्षा की प्रक्रिया, जो कि बारह वर्षों तक चलती है, एक आत्मीय और आत्मान्वेषी यात्रा होती है। इसमें शामिल होने की आद्य प्रक्रिया में छह वर्ष लग सकते हैं जिस दौरान एक नए शिष्य को केवल एक लंगोट पहनने की अनुमति होती है। कुंभ मेला के पावन अवसर पर अंतिम व्रतों के उपरांत इन साधुओं को पूरा जीवन नग्न रहने का संकल्प लेना पड़ता है।
नागा साधु अपनी अलौकिक पूजा शैली और युद्धकला में पारंगत होते हैं। इन्हें शरीर पर भस्म धारण करने के लिए जाना जाता है, जो भगवान शिव के प्रतीक के रूप में होती है। अखाड़े में प्रवेश पाने के लिए कठोर जांच-पड़ताल की प्रक्रिया होती है, जो आगामी नागा संतों की पूर्णता और योग्यता को सुनिश्चित करती है।
नागा बनने की अंतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण समारोह ‘पिण्डदान’ होती है, जिसमें साधु अपने भौतिक जीवन का त्याग करते हैं। इसे ‘बिजवान’ संस्कार कहा जाता है, जिसमें एक नागा संत का पुनर्जन्म होता है।
नागा साध्वियाँ: शिव की आराधिकाएँ
नागा साधुओं की भांति ही महिला नागा साध्वियाँ भी अपनी सम्पूर्ण कर्मभूमि को भगवान शिव को समर्पित करती हैं। एक नागा साध्वी बनने का अनुष्ठान और प्रक्रिया पुरुषों से काफी भिन्न होती है। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह होता है कि महिलाओं को अपने सिर के बाल मुंडवाने होते हैं।
हालांकि, नागा साध्वियाँ उन्हें दिए जाने वाले गेरुआ वस्त्र के साथ शालीनता बरतती हैं। इस वस्त्र के माध्यम से वे अपने शरीर को ढंकने का कर्म करती हैं, जो कि पुरुष नागाओं को अनुमति नहीं है। महिला नागा साधुओं को ‘माता’ कह कर सम्बोधित किया जाता है और ये ‘माई बाड़ा अखाड़ा’ में सेवाएं अनुष्ठित करती हैं, जो कि 2013 के प्रयागराज कुंभ में ‘दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा’ के रूप में परिचित हुआ है।
नागा साधुओं के बाद कुंभ में नागा साध्वियों को स्नान की अनुमति दी जाती है। यह प्रक्रिया इतनी पवित्र मानी जाती है कि इनके स्नान के बाद ही अन्य संत समूह स्नान करते हैं। नागा साध्वियाँ अपने झुंड के साथ जपतप की और लौट जाती हैं और अपने आध्यात्मिक जीवन को निरंतर जारी रखती हैं।
यह जीवनशैली और तपस्या जिसका नागा साधु और साध्वियाँ अनुसरण करते हैं, उन्हें न सिर्फ भारतीय संस्कृति का एक अभूतपूर्व अंग बनाती है बल्कि यह भारतीय आध्यात्मिकता की गहरी और विविध जड़ें भी प्रस्तुत करती हैं। नागा साधुओं की दुनिया एक अद्भुत संसार है जहां साधना, सेवा और शिवत्व की अनुभूति सतत प्रवाहमान होती है।