होलिका दहन और होली की प्रस्तावना
हिन्दू कैलेंडर में होली का पर्व झूम उठने, उत्साहित होने और रंगों को बिखेरने का त्योहार है। वसंत ऋतु की प्रत्यूषा के साथ, न केवल प्रकृति नए रंगों में सजती है, बल्कि हमारे घर और समाज भी नए उस्साह और उमंग से भर जाते हैं। होली का पर्व सामाजिक समरसता और भाईचारे का प्रतीक है, और इसी के साथ-साथ यह कुछ परंपरागत विधियों का भी निर्वहन करता है। होलिका दहन के दिन ऺुजियाँ और ठंडाई की तैयारियों के बीच, हम एक ऎतिहासिक और पौराणिक घटना का स्मरण करते हैं।
होलिका और प्रह्लाद की दास्तान
इस त्योहार की उत्पत्ति की कहानी समझने के लिए हमें पौराणिक कथाओं के पृष्टभूमि पर जाना होगा। हिरण्यकश्यप एक शक्तिशाली असुर था जिसे अपनी शक्तियों पर अत्यधिक घमंड था। उसके पुत्र प्रह्लाद, हालांकि, भगवान विष्णु के अटूट भक्त थे। हिरण्यकश्यप को यह स्वीकार नहीं था और जब सारे प्रयास असफल रहे तो उसने अपनी बहन होलिका के सहयोग से प्रह्लाद को जलाकर मारने की घृणित योजना बनाई। होलिका को अग्नि से न जलने वाले एक वस्त्र का वरदान प्राप्त था। उसने प्रह्लाद को गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश किया, लेकिन अंत में वरदान के वस्त्र ने प्रह्लाद को ढक लिया और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। यह पौराणिक घटना हमें भक्ति की शक्ति और बुराई के विरुद्ध अच्छाई की जीत का प्रतीक बताती है।
नवविवाहित बहुओं की पहली होली
तथापि, इस प्राचीन कथा में एक अविश्वसनीय मोड़ है जो नवविवाहित बहुओं के पहली होली ससुराल में न मनाने की परंपरा से जुड़ता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, जिस दिन होलिका प्रह्लाद को अग्नि में ले कर बैठी थी, वह उसके विवाह का दिन था। कथा की एक शाखा के अनुसार, होलिका का विवाह इलोजी नामक एक पुरुष से होने वाला था, और जब इलोजी की माँ और बारात विवाह के लिए पहुँची, उन्होंने होलिका की जलती चिता को देखा। सदमे में, इलोजी की माँ की मृत्यु हो गई और इस घटना के बाद यह परिपाटी बन गई कि नई बहुएँ अपने पीहर में पहली होली मनाएँ।
यह अनोखी परंपरा भले ही काल के गर्त में स्थापित हो, पर इसमें संदेश छुपा है कि नए संबंधों का आरम्भ आस्था और विश्वास से होना चाहिए। जहाँ एक ओर होलिका दहन अनीति और अधर्म के प्रति एक प्रतिरोध की मिसाल प्रस्तुत करता है, वहीं यह परंपरा पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों के संरक्षण का संदेश देती है।
ये जानकारी लोकमान्यताओं और पौराणिक कथाओं के अवलोकन पर निर्भर है, जिनकी वैज्ञानिकता या ऐतिहासिकता का सत्यापन नहीं किया गया है। फिर भी, ये परंपराएँ हमारे समाज के लिए एक उत्साह और उमंग की रीत बने रहती हैं और हमें अपनी संस्कृति के महत्व की याद दिलाती रहती हैं।
होली का पर्व, आपसी वैमनस्य को मिटा कर, समरसता का मार्ग प्रशस्त करते हुए, हमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना जागृत करने का हाथ बढ़ाता है। अंतत: चाहे परंपरा हो या पर्व, उनका मूल उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण और सकल समाज का सौहार्द ही होता है।